एक भगौने में पानी डालिये और उसमे एक मेढक छोड़ दीजिये। फिर उस भगौने को आग में गर्म कीजिये। जैसे जैसे पानी गर्म होने लगेगा, मेढक पानी की गर्मी के हिसाब से अपने शरीर को तापमान के अनुकूल सन्तुलित करने लगेगा। मेढक बढ़ते हुए पानी के तापमान के अनुकूल अपने को ढालता चला जाता है
और फिर एक स्थिति ऐसी आती है कि जब पानी उबलने की कगार पर पहुंच जाता है। इस अवस्था में मेढक के शरीर की सहनशक्ति जवाब देने लगती है और उसका शरीर इस तापमान को अनुकूल बनाने में असमर्थ हो जाता है। अब मेढक के पास उछल कर, भगौने से बाहर जाने के अलावा कोई चारा नही बचा होता है और वह उछल कर, खौलते पानी से बाहर निकले का निर्णय करता है।
मेढक उछलने की कोशिश करता है लेकिन उछल नही पाता है। उसके शरीर में अब इतनी ऊर्जा नही बची है कि वह छलांग लगा सके क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा तो पानी के बढ़ते हुए तापमान को अपने अनुकूल बनाने में ही खर्च हो चुकी है। कुछ देर हाथ पाँव चलाने के बाद, मेढक पानी पर मरणासन्न पलट जाता है और फिर अंत में मर जाता है।
यह मेढक आखिर मरा क्यों? सामान्य जन मानस का वैज्ञानिक उत्तर यही होगा कि उबलते पानी ने मेढक की जान ले ली है लेकिन यह उत्तर गलत है। सत्य यह है कि मेढक की मृत्यु का कारण, उसके द्वारा उछल कर बाहर निकलने के निर्णय को लेने में हुयी देरी थी। वह अंत तक गर्म होते माहौल में अपने को ढाल कर सुरक्षित महसूस कर रहा था। उसको यह एहसास ही नही हुआ था कि गर्म होते हुए पानी के अनुकूल बनने के प्रयास ने, उसको एक आभासी सुरक्षा प्रदान की हुयी है। अंत में उसके पास कुछ ऐसा नही बचता की वह इस गर्म पानी का प्रतिकार कर सके और उसमे ही खत्म हो जाता है।
मुझे इस कहानी में जो दर्शन मिला है वह अपने आसपास की परिस्थितियों को देखकर भी नकारना नहीं चाहिए… परिस्थितियां ना जाने कब अनुकूल से प्रतिकूल हो जाएं और हमें रिएक्शन टाइम भी ना मिले। सुरक्षा कवच भी एक समय सीमा तक हमारा बचाव कर सकता है यह कहानी अपने आसपास के वातावरण में फैल रही तमाम बीमारियों से बचकर ज़िन्दगी को जीतने के विश्वास की है।