Theme Based Content – युवा प्रेरणापुंज स्वामी विवेकानंद – व्यक्तित्व एवं कृतित्व – क्रमबद्ध श्रंखला – स्वामी विवेकानंद – एक जिज्ञासा : – सन्यासी स्वामी विवेकानंद – 3

Theme Based Content – युवा प्रेरणापुंज स्वामी विवेकानंद – व्यक्तित्व एवं कृतित्व – क्रमबद्ध श्रंखला – स्वामी विवेकानंद – एक जिज्ञासा : – सन्यासी स्वामी विवेकानंद – 3

संन्यास लेने पर स्वामी विवेकानन्द ने एकान्तवास सेवन कर योगाभ्यास किया। विदेशों में भी वे जब तब एकान्त वास करते थे। पैर में सादा देशी जूता, कमर में कौपीन, शरीर पर गेरुआ अंगरखा और सिर पर साफा धारण किया। क्या देश क्या विदेश सभी जगह वे एक ही वेश से घूमे; हाँ, सर्दी के कारण विदेश में बजाय सूती के ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते थे। उन के इस वेश से विदेश में प्रायः लोग उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे।

एक बार अमेरिका में किसी पथ से होकर जा रहे थे तो एक सभ्य पुरुष ने छड़ी से उनका साफा दूर उछाल दिया।

“आप जैसे सभ्य पुरुष ने यह कष्ट क्यों उठाया?”, स्वामी जी ने पूछा।
उसने कहा, “भला आपने यह विचित्र वेश क्यों धारण किया है?”
“मैं बहुत दिनों से इस देश की सभ्यता की प्रशंसा सुनता था। इसी से इसको देखने की इच्छा से आया था।” स्वामी जी ने कहा, “यहाँ की सभ्यता का पहला पाठ आप ही ने मुझे पढ़ाया।”

स्वामी जी के कथन से वह बहुत लज्जित हुआ और क्षमा मांगते हुए घर की राह ली।

अद्वैतवाद के प्रचारार्थ वे चीन, जापान गए। वहाँ से लौट कर भारत के इलाहाबाद, बनारस, पूना, मद्रास आदि नगरों में घूमे। समस्त मानव जाति के प्रति सब भेद-भावों को भुलाकर समान दृष्टि से धर्म प्रचार करना ही वे सर्वोपरि देश-सेवा समझते थे।

वे कहते थे–“अपने ज्ञान का उपयोग संसार को करने दो, अन्यों के सीखने योग्य गुणों को तुम सीखो। आकुण्ठित विचारों को हृदय में रखना मृत्यु का आह्वान है। जो दूसरों को स्वतंत्रता नहीं दे सकते, वे स्वयं स्वतंत्र होने योग्य नहीं।”

स्वामी विवेकानंद एक बार रामेश्वर से मध्य भारत की ओर आ रहे थे। रास्ते में रामनाड़ के महन्त से भेंट हुई। महन्त ने स्वामी जी की विद्वत्ता पर मुग्ध होकर उनसे अमेरिका की सर्वधर्म परिषद में भारत के प्रतिनिधि स्वरूप जाकर हिन्दू धर्म प्रचार की प्रार्थना की। स्वामी जी तो तैयार ही थे, सहमत हो गए और मद्रास आदि में घूमकर कुछ चन्दा एकत्रित किया। विदेश का ख़र्च, थोड़ा चन्दा, अमेरिका पहुँचते-पहुँचते रुपया ख़त्म हो गया। कोई दूसरा पुरुष होता तो अवश्य घबड़ा जाता पर जिसकी चिन्ता ईश्वर को है उसे कैसा सोच। रास्ते में एक वृद्धा स्त्री से भेंट हो गई। वह स्वामी जी का विचित्र वेष देखकर “इस पूर्वीय जीव से कुछ विनोद ही होगा” विचारती हुई उन्हें अपने घर ले गई। परन्तु घर में विनोद के बदले तत्व-ज्ञान का उपदेश स्वामी जी के मुख से सुनकर वह स्तंभित हो गई। अल्प समय में ही अमेरिका के समाचार पत्रों में स्वामी जी की कीर्ति-कथा पढ़ी जाने लगी।

एक दिन एक अहम्मन्य तत्त्वज्ञानी स्वामी जी को परास्त करने की इच्छा से उनके पास आया परन्तु उनकी असाधारण विद्वत्ता और वक्तृत्त्व शक्ति पर मुग्ध होकर उसी समय उनका शिष्य हो गया। शिकागो की सर्वधर्म सभा में स्वामी जी जब आये हुए प्रतिनिधियों का अपनी रसमयी वाणी से स्वागत करते थे तो स्वामी जी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा हो जाती थी।

परिषद में जिस दिन स्वामी जी का भाषण होने को था, सवेरे से हो शहर की दीवालों पर लगे हुए विज्ञापन आगन्तुकों को बतला रहे थे,

“एक तेजस्वी विद्वान, अद्वितीय हिन्दू संन्यासी का व्याख्यान 4 बजे सुनकर अपने को तृप्त कीजिए।”

सभा-भवन में तथा उसके चारों ओर इतनी ठसाठस भीड़ थी कि तिल रखने की जगह न थी।

यथा समय स्वामी जी व्यास-पीठ पर आ उपस्थित हुए। उनकी तेजस्वी और मनोहर मूर्ति देख कर द्रष्टाओं की आँखें चकाचौंध हो गईं। सब के तुमुल जय घोष के साथ “ओ३म् तत्सत्” का गीत गाते हुए स्वामी विवेकानन्द ने मनोमुग्धकारी भाषण शुरू किया और अनेक युक्ति तथा प्रमाणों से साबित कर दिया कि एक हिन्दू धर्म ही ऐसा सार्वभौम धर्म है जिसे मानव जाति स्वीकार कर सकती है।

अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र अभिमान के साथ जय घोष करते हुए लिखने लगे–”गेरुआ वस्त्रधारी यह हिन्दू धर्मोपदेशक ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ जन्मसिद्ध वक्ता है। ऐसे प्रतिभाशाली देश में मिशनरियों का भेजना मूर्खता है।”

गंगा की धवल धारा की तरह स्वामी जी की कीर्ति अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि में फैल गई। न्यूयॉर्क में “रामकृष्ण मठ” नामक एक संघ स्थापित हुआ जिसमें अब तक वेद, वेदांत, ध्यान, धारणा, प्राणायाम आदि की शिक्षा दी जाती है।

अमेरिका जाने से पूर्व भारतीय जिनका नाम तक नहीं जानते थे, लौटने पर कोलम्बो (सीलोन) में उनके स्वागत के लिए दश सहस्र पुरुष एकत्रित हुए और स्वामी जी का ख़ूब स्वागत किया। रामनाड़ के महन्त ने हाथी-घोड़ों, गाजों-बाजों, ध्वजा पताकाओं, वाद्यों, रोशनी व अपार भीड़ के साथ उनका अपूर्व स्वागत किया और पाश्चात्त्य देशों में दिग्विजयी होने के कारण अपने यहाँ एक विजय-स्तम्भ स्थापित किया।

स्वदेश में स्वामी जी ने मद्रास, बंगाल, उत्तर भारत और बंबई आदि के भिन्न-भिन्न स्थानों में घूम-घूम कर बहुत से व्याख्यानध दिए। कितने ही स्थानों में संस्थाएँ खोलीं जिनका मुख्य कार्य धर्म प्रचार और ग़रीबों की सेवा करना था।

स्वामी विवेकानंद जी बड़े संयत पुरुष थे। अपनी धुन के एक थे। दृढ़ निश्चयी थे। पास घड़ी न रखने पर भी सब कार्य उनके यथा समय ही होते थे। उनमें तीन प्रधान गुण थे–

1 नियमितता
2 देश, धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा
3 स्वार्थ त्याग पूर्वक अथक परिश्रम’

वे एक कर्मयोगी थे और कभी खाली बैठना तो जानते ही न थे। 12-14 घंटे अभ्यास करना उनका नित्य का कार्य था। उनका सिद्धान्त था कि खाली बैठने से मनुष्य काहिल हो जाता है। खाली बैठने से बेगार करना अच्छा।

एक दिन उनके एक आलसी नौकर ने आकर कहा, “महाराज, आप सब को मुक्ति की राह बतलाते हैं पर मुझे क्यों नहीं बतलाते जो दुनिया के झंझटों से छूट जाऊँ।”
“मुक्ति के लिये उद्योग की आवश्यकता है। यदि तुम कुछ न कर सको तो चोरी ही सीख लो।” स्वामी जी ने हँसकर कहा, “खाली बैठने से चोरी आदि सीखना अच्छा, क्योंकि उद्योग से ज्ञान होने पर बुरे कर्म छूट जाते हैं।”

स्वामी विवेकानंद अपने भारतीय मित्रों को प्रायः लिखा करते थे, “अब बार-बार यह कहने का समय नहीं कि हम ऐसे जगद्विजयी थे, उद्योगी थे, हम संसार के गुरु थे, हम सर्वोपरि थे। अब कैसे हो सो संसार को दिखला दो। अपने कर्तव्य पथ पर बढ़े चलना तुम्हारा कार्य है। यश तो पीछे-पीछे आप दौड़ता है। संसार का भार अपने ऊपर समझो, अपना भार ईश्वर पर छोड़ दो। अन्तःकरण की पवित्रता, धैर्य और दृढ़ निश्चय के साथ सतत उद्योग में निरत रहो। मरने का मोह त्याग दो। कष्टों का सामना करने की, संसार की भलाई करने की प्रतिज्ञा कर लो और उसका पालन करो। कहो कम, करो ज़्यादा। तभी सफल होगे।”

एक जगह स्वामी जी अपने एक मित्र के पत्र के उत्तर में लिखते हैं–
“तुमने लिखा कि कलकत्ते की सभा में दस हज़ार मनुष्यों की भीड़ हुई। यह बड़े आनन्द की बात है। पर सभा में फ़ी (शुल्क) एक आना मांगने पर कितने आदमी बैठे दिखलाई पड़ते इसका भी अनुभव करना था। निरुद्योगियों की सभा में उद्योग की बात ज़हर मालूम होती है। जो कुछ भी करना है आचरण से सिद्ध करो, व्यवहार से सिद्ध करो। जब तुम्हारा आचरण और व्यवहार लोगों को हितकर मालूम होगा तो वे आप से आप तुम्हारा अनुकरण करने लगेंगे। हमारा कर्तव्य है कि लोगों को धार्मिक जीवन और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखावें। बस, निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख का विचार छोड़कर उठो और कार्य आरम्भ करो।”

स्वामी जी ने सच ही तो कहा….बस, निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख का विचार छोड़कर उठो और कार्य आरम्भ कर दो।

एक बार एक स्थान पर अपार जन समूह में स्वामी विवेकानंद का रथ खड़ा किया गया। वहीं स्वामी जी को उपदेश देना पड़ा। आपने कहा, “भगवान कृष्ण ने रथ में बैठकर गीता का उपदेश दिया था। आज वही सौभाग्य मुझे प्राप्त है। काम करना और उद्योग करना मनुष्य के हाथ में है। फल और यश ईश्वर के हाथ में है। मैं उस दिन अपने को धन्य समझूंगा जिस दिन आप लोगों का यह उत्साह कार्य रूप में परिणत होगा।”

स्वामी जी की वाणी में अद्भुत मधुरता और आकर्षण शक्ति थी। श्रोताओं पर उनके उपदेश का बिजली की तरह असर होता था। अपने उपदेश में वे किसी की बुराई करना तो जानते ही न थे फिर भी हिन्दू धर्म की ख़ूबी का सिक्का लोगों के हृदय में जमा देते थे। लोग मंत्रमुग्ध की भाँति उनके व्याख्यानों को सुनते थे। अंग्रेज़ी और संस्कृत पर उनका असाधारण अधिकार था। स्वामी जी का मत था,

“उदार चरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्।”

मनुष्य जाति को वे समान दृष्टि से देखते थे। हिंदू संस्कृति पर उन्हें अभिमान था, उसका प्रचार और अध्यात्म ज्ञान का प्रचार उनके जीवन का लक्ष्य था। ब्रह्मचर्य की वे साक्षात् मूर्ति थे। देश सेवा, परोपकार, शिक्षा प्रसार उनके कार्यों के मुख्य अङ्ग थे। उनका जीवन संसार के लिए आदर्श था। कोई भी मनुष्य स्वामी विवेकानंद के उपदेशों के अनुसार चलकर अपना जीवन सफल बना सकता है।

सन् 1902 की 4 जुलाई को स्वामी जी ने नित्य की भाँति प्रातः कृत्य करने के पश्चात् योगाभ्यास किया। मध्याह्न में शिष्यों को पढ़ाया। संध्या समय मुमुक्षुओं से धर्म-चर्चा की, बाहर घूमने गए। पहर रात्रि गए तक बातचीत करते-करते सहसा कहने लगे, “आज मेरी श्री गुरु-चरण दर्शनों की इच्छा है। नाशमान शरीर में अमर आत्मा का कार्य कभी नहीं रुकता। देश की इच्छाओं को अब आप लोग पूर्ण करें, ईश्वर आपको सहायता दे।” इतना कहने के साथ ही वे अपने कक्ष में गए, “ॐ तत्सत्” कहते हुए अन्तिम श्वास छोड़ दी और परमात्मा में लीन हो गए….

मगर वह तब भी, आज भी और आगे भी हमेशा हमारे बीच में हमारे साथ हमारे अंतर्मन में हमारे विचारों में हमारे प्रयासों में हमारे सपनों में विद्यमान थे विद्यमान है और विद्यमान रहेंगे… कार्यक्रम अनवरत चलता रहेगा मैं नहीं कोई और सही कोई और नहीं कोई और सही उनके विचारों, उनके दिग्दर्शन, उनके प्रयत्नों से प्रभावित होकर उनके प्रयासों को आगे बढ़ाता रहेगा…

अस्तु

भगिनी निवेदिता

Leave a Reply