Theme Based Content – “चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – सोलह संस्कारों के उद्देश्य

Theme Based Content – “चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – सोलह संस्कारों के उद्देश्य

भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य का प्रत्येक कृत्य संस्कारयुक्त होना चाहिए । सनातन धर्म ने प्रत्येक जीव को सुसंस्कृत बनाने हेतु गर्भधारणा से विवाह तक प्रमुख सोलह संस्कार बताए हैं ।

इन संस्कारों का उद्देश्य क्या है संस्कारों के दो उद्देश्य थे। एक उद्देश्य तो प्रकृति में विरोधी शक्तियों के प्रभाव को दूर करना और हितकारी शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करना था, क्योंकि प्राचीन हिंदूओं का भी अन्य प्राचीन जातियों की भांति यह विश्वास था कि मनुष्य कुछ अधिमानव प्रभावों से घिरा हुआ है। इस प्रकार वह बुरे प्रभाव को दूर करके और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करके देवताओं और इन अधिमानव शक्तियों की सहायता से समृद्ध और सुखी रहेगा। संस्कारों के द्वारा वे पशु, संतान, दीर्घायु, संपत्ति और समृद्धि की आशा करते थे। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपने हर्षोल्लास को भी व्यक्त करता था।दूसरा मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक था। मनु के अनुसार मनुष्य संस्कारों के द्वारा इस संसार के और परलोक के जीवन को पवित्र करता है। इसी प्रकार के विचार याज्ञवल्क्य ने व्यक्त किये हैं।

प्राचीन भारतीयों का विश्वास था कि प्रत्येक मनुष्य शूद्र उत्पन्न होता है और उसे आर्य बनने से पूर्व शुद्धि या संस्कार की आवश्यकता होती है। इसी उद्देश्य से उपनयन संस्कार किया जाता था।

संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य का नैतिक उत्थान और उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचने के योग्य बनाना था।

संस्कारों का संबंध मनुष्य के संपूर्ण जीवन से था। वे जीवन भर इस संसार में और आत्मा के द्वारा परलोक में भी उस पर प्रभाव डालते थे।जीवन भर मनुष्य संयम का जीवन बिताता था और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन में रहता था। इस प्रकार समाज में समान संस्कृति के और अधिक चरित्रवान व्यक्तियों का प्रादुर्भाव होता था। प्राचीन भारतीयों की धारणा थी कि संस्कारों के द्वारा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। इन के द्वारा मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि संपूर्ण जीवन ही आध्यात्मिक साधना है।इस प्रकार संस्कारों के द्वारा सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में सुंदर समन्वय स्थापित किया गया था। शरीर और उसके कार्य अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक माने जाते थे न कि बाधक।संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य की पाशविकता को परिष्कृत- मानवता में परिवर्तित करना था।

प्राचीन काल में मनुष्य के जीवन में धर्म का विशेष महत्व था। संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना था कि वह विश्व में मानव और अतिमानव शक्तियों के साथ समन्वय स्थापित कर सके। इनका उद्देश्य मनुष्य को बौद्धिक ओर आध्यात्मिक रुप से सुसंस्कृत बनाना था।

गर्भाधान से जन्म तक के संस्कारों का उद्देश्य सुजनन विज्ञान की शिक्षा और विद्यारंभ से समावर्तन तक के संस्कारों का शैक्षिक महत्व था। विवाह संस्कार का सामाजिक महत्व था। इस संस्कार के द्वारा मनुष्य का पारिवारिक जीवन सुखी बनता था और समाज में सुव्यवस्था रहती थी। अंत्येष्टि संस्कार का उद्देश्य पारिवारिक और सामाजिक स्वास्थ्य परिवार के जीवित व्यक्तियों को सांत्वना प्रदान करना था।ये संस्कार वर्ण- धर्म और आश्रम- धर्म दोनों का अभिन्न भाग थे। वर्ण- धर्म का उद्देश्य व्यक्ति के कार्यों को समाज के हित को ध्यान में रख कर नियंत्रित करना था। आश्रम धर्म का भी यही उद्देश्य है, किंतु इसमें प्रमुख रुप से व्यक्ति के हित को ध्यान में रखा जाता था। इन दोनों दृष्टिकोणों को मिलाने वाली कड़ी संस्कार है। संस्कारों के द्वारा व्यक्ति पहले से अधिक संगठित और अनुशासित होकर एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करता था। इस प्रकार प्रशिक्षण देकर व्यक्ति को समाज के लिए पूर्णतया उपयोगी बनाया जाता था। गृहस्थाश्रम में योग्य संतान उत्पन्न करके पति- पत्नी समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करते थे, किंतु साथ ही वे अपनी निजी उन्नति भी करते थे। गृहस्थाश्रम भी वानप्रस्थ की और इसी प्रकार वानप्रस्थ संन्यास की पृष्ठभूमि हैं। सभी आश्रम व्यक्ति को उस के लक्ष्य मोक्ष की ओर ले जाते हैं।

तन्त्रवार्तिक के अनुसार संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है; पाप-मोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है।वीर मित्रोदय ने संस्कार की परिभाषा इस तरह की है– यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है।…यह योग्यता दो प्रकार की है-जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं (यथा उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन आरम्भ होता है) के योग्य हो जाता है, तथादोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है।संस्कार के समय जो धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं, वे व्यक्ति को इस बात की अनुभूति करती है कि उसके जीवन में इस संस्कार के बाद कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन होने जा रहा है। उदाहरण के लिए उपनयन संस्कार उसे इस बात की अनुभूति कराता है कि वह इस संस्कार के बाद उस समुदाय की सांस्कृतिक परंपरा का अध्ययन करेगा, जिस समुदाय विशेष का वह सदस्य है। इसी प्रकार विवाह संस्कार के बाद संतानोत्पत्ति करके अपने समुदाय की शक्ति बढ़ाने का निश्चय करता है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर वह समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करके धर्म- संचय करता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, जो उसे उसके जीवन के लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की ओर अग्रसर करती है।संस्कारों के समय की जाने वाली धार्मिक क्रियाएँ व्यक्ति को इस बात की अनुभूति कराती थी कि अब उसके ऊपर कुछ नई जिम्मेदारियाँ आ रहीं हैं, जिन्हें पूरा करके ही वह समाज की और अपनी दोनों का उन्नति कर सकता है। इस प्रकार संस्कार पूर्वजन्म के दोषों को दूर करके और गुणों का विकास करने में सहायक होकर व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति में सहायक होते थे, इसलिए प्राचीन भारत में संस्कारों का इतना महत्व था।

कालांतर में जन साधारण संस्कारों के सामाजिक और धार्मिक महत्व को भूल गए। संस्कार एक परम्परा मात्र रह गए। उनमें गतिशीलता न रही। समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन नहीं किए गए। उनमें मानव को सुसंस्कृत बनाने की शक्ति न रही। वे नित्य चर्या से संबंधित धार्मिक- कृत्य मात्र रह गए। उनका जीवन पर प्रभाव लेशमात्र भी न रहा। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण जीवन की संकल्पना ही बदल गयी है। अब मानव उन अतिमानव शक्तियों में विश्वास नहीं करता, जिनके अशुभ प्रभाव को दूर करने और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने के लिए संस्कार किए जाते थे, किंतु मानव जीवन का स्रोत अब भी एक रहस्य है। अतः मनुष्य अब भी संस्कारों के द्वारा अपने जीवन को पवित्र करना चाहता है। मनुष्य अब भी यह भली- भांति जानता है कि जीवन एक कला है। उसको सफल बनाने के लिए जीवन का परिष्कार करने की आवश्यकता है। व्यक्ति के सुसंदेनेृत होने पर ही समाज सुसंस्कृत हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वर्तमान काल में भी संस्कारों का अपना अलग महत्व है।

संस्कारों का रुप बदल सकता है, किंतु जीवन को सफल बनाने की दिशा में उनका महत्व कम नहीं हो सकता।सरल भाषा मे कहें तो सोलह संस्कार करने के उद्देश्य

१. बीजदोष न्यून करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

२. गर्भदोष न्यून करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

३. पूर्वजन्मों के दुष्कृत्यों के कारण देवता तथा पितरों का शाप हो तो उनकी बाधा दूर करने हेतु तथा उनके ऋण से मुक्त होने के लिए एवं कुलदेवता, इष्टदेवता, मातृदेवता, प्रजापति, विष्णु, इंद्र, वरुण, अष्टदिक्पाल, सवितादेवता, अग्निदेवता आदि देवताओं को प्रसन्न कर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

४. बालक आरोग्यवान, बलवान तथा आयुष्यमान हो, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

५. बालक बुद्धिमान, सदाचारी, धर्म के अनुसार आचरण करनेवाला हो, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

६. अपने सत्कृत्य तथा धर्मपरायण वृत्ति से आत्मोन्नति कर अपने वंश की पूर्व की बारह तथा आगे की बारह पीढियों का उद्धार करने की क्षमता बालक में आए, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

७. स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति कर ब्रह्मलोक अथवा मोक्षप्राप्ति की क्षमता अर्जित करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

८. सनातन धर्म के अनुसार प्रत्येक का प्रत्येक कृत्य तथा उसपर किया गया प्रत्येक संस्कार परमेश्वर को प्रसन्न करने हेतु होता है; क्योंकि परमेश्वर की कृपा होनेपर ही हमारा उद्देश्य पूर्ण हो सकता है । ये सर्व संस्कार बालक के माता-पिता तथा गुरु को करना चाहिए ।२. द्रव्यपर आयुर्वेद का संस्कारकिसी द्रव्य का गुण परिवर्तित करने हेतु, अर्थात उससे शरीरपर कोई अनिष्ट परिणाम न हो तथा शरीर की कार्यक्षमता बढे, इस हेतु द्रव्यपर जो प्रक्रिया की जाती है, उसे ‘संस्कार’ कहते हैं ।‘संस्कारो हि गुणान्तराधानं उच्यते ।’– चरक सूत्रस्थान २६-३४‘संस्कार’ अर्थात पवित्रता, शुद्धता तथा स्वच्छता । अन्न पकाने से (अग्निसंस्कार से) वह ठीक से पचता है । औषधि को कूटकर चूर्ण बनाने से वह महीन अर्थात सूक्ष्म और अत्यधिक गुणकारी हो जाती है । मर्दनं गुणवर्धनम् ।‘जमालगोटा’ (जयपाल) एक रेचक औषधि है । इसे अंग्रेजी भाषा में ‘क्रॉटन पॉलिएन्ड्रम’, कहते हैं । रेचक होते हुए भी यह पेट में मरोड उत्पन्न करता है । जयपाल नींबू के रस के साथ खानेपर मरोड नहीं होती । इसे ही संस्कार कहते हैं ।३. जड वस्तुपर संस्कारपत्थर से मूर्ति बनाने हेतु शिल्पकार को पत्थर पर हथौडा चलाकर उसका अनावश्यक भाग निकालना पडता है तथा बाद में छेनी से उसपर महीन काम करना पडता है । ऐसा आघात सहकर ही, अर्थात संस्कार होकर ही पत्थर को देवत्व प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य पहले मनुष्ययोनि में अनेक बार जन्मा हुआ होनेपर भी उसे पुनः-पुनः सीखना पडता है तथा उसपर संस्कार करने पडते हैं ।कोई मनुष्यजन्म से अरण्य में ही रहा हो तथा मनुष्यों के संपर्क में आया ही न हो, तो कभी भी बोल नहीं पाएगा । घर में मनुष्यों के बोल सुनकर तथा उनका भाव समझकर बच्चा धीरे-धीरे बोलना सीखता है । पूर्वजन्म में यही भाषा रही होगी, ऐसा भी नहीं । भाषा नवीन होनेपर मन को भी भाषा का अभ्यास करने में समय लगना स्वाभाविक है । भाषा पूर्वजन्म की हो, तो भी उसमें परिवर्तन होते रहते हैं । ६०० वर्ष पूर्व की मराठी भाषा आज बहुत परिवर्तित हो गई है ।मन की अभिव्यक्ति मानवीय मस्तिष्क तथा शरीर से होती है । (सक्षम) देह से मन के विचार अधिकाधिक कुशलता से व्यक्त होते हैं ।

विज्ञान की प्रगति के कारण बाहर के उपकरणों, तंत्रों तथा सुविधाओं में विशेषतः गत शताब्दी में बहुत परिवर्तन हुए हैं । ६०० वर्ष पूर्व के मनुष्य का अब जन्म होनेपर दूरचित्रवाणी, वायुयान, संगणक इत्यादि देखकर उसे लगेगा कि मैंने स्वर्ग में जन्म लिया है तथा इसके संबंध में उसे जानकारी, उनका तंत्र तथा उस विषय में शिक्षण लेना पडेगा । अध्यात्मशास्त्र परिपूर्ण होते हुए भी तथा उसमें कोई परिवर्तन न होनेपर भी, अध्यात्मशास्त्र समझने के लिए उसे विज्ञान के शोध बहुत उपयोगी होंगे । अध्यात्मशास्त्र सीखने हेतु पूर्व के उदाहरण न देकर आधुनिक उदाहरण देन पडेंगे । नवीन देह के साथ मन को भी चलना-बोलना सीखना पडेगा । वह जिस घर में जन्मा है, उस घर के लोगों को यदि गाली देने की आदत हो, तो लडका गाली देना सीखेगा । जहां नामजप, भजन, कीर्तन होता है, ऐसे घर में जन्म लेनेपर उसे नामजप करने की आदत लगेगी तथा उसपर अच्छे संस्कार होंगे ।इसके साथ ही पूर्वजन्म के शिक्षण तथा संस्कार का इस जन्म में लाभ होता है, उदा. पूर्वजन्म में कोई संगीतज्ञ रहा हो, तो इस जन्म में संगीत सीखते समय कम समय में विलक्षण प्रगति होगी । पूर्वजन्म में अध्यात्मशास्त्र में पारंगत होनेपर इस जन्म में उसे पहले से ही अध्यात्मशास्त्र में रुचि होगी । आदि शंकराचार्य आयु के ८ वें वर्ष में वेद सिखाते तथा उनका अर्थ समझाकर बताते थे । भगवान श्रीकृष्ण ने गीतामें कहा है –शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽपि जायते ।इस जन्म में सिद्धावस्था को न प्राप्त हुआ योगी अथवा साधक, मृत्यु के उपरांत सात्त्विक अथवा ऐश्वर्यवान घर में जन्म लेता है । सर्वसाधारणतः अनेक संतों का जन्म आध्यात्मिक वातावरणवाले कुलों में हुआ है ।

अतः संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पनता से मानव जीवन को अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।

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