Theme Based Content – “ चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – शिक्षा और संस्कार

Theme Based Content – “ चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – शिक्षा और संस्कार

बहुत जरूरी विषय है शिक्षा , बच्चा जन्म लेता है उसकी आंखे नजर बैठती नही और मां पिता की दिली तमन्ना होने लगती की उनका बच्चा कुछ सीखे कम से कम अपने मां बाप को पहचानना तो सीखे ,उसके लिये उसकी आंखों के सामने हाथ घुमाये जाते ताकि उसकी नजर बैठे तो उस वक़्त जो हाथ घुमाया जाता है वह हाथ साधन है , इसलिये शिक्षा मे साधन भी महत्वपूर्ण है ,फिर बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है उसे शिक्षा देने की कोशिश की जाती ,है और उसके लिये कई प्रकार के साधनो की अवश्यकता होती है ,आज हमारे शिक्षा की उपयोगिता रोजगार मे उपयुक्त साबित नही हो पा रही क्योंकि हमारी शिक्षा केवल किताब के चन्द शब्दो तक ही सीमित है , उसमे केवल कंठस्थ कर किसी प्रकार डिग्री प्राप्त करने का उद्देश्य विद्यार्थी के सामने रखा जाता है, हमलोग हमारे पहले प्रयास को भी भूल जाते , हम जब बच्चा जन्म लेता है तो अनजाने मे ही क्यो ना हो मगर सार्थक प्रयास करते है उसे आत्मनिर्भर बनाने का , उस नजर बैठने की पहली चाहत कि वह जल्द से जल्द दुनिया को पहचाने , मगर हम जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है मोहवश उसे साधनहीन बना देते हैं। जबकि प्रयास होना चाहिये कि उसे जितने जल्दी हो आत्मनिर्भर बनाये , उसे शिक्षा के साथ सामाजिक रिश्तों का महत्व समझाएं और व्यवहारिक ज्ञान दिलाएं , बच्चो के लिये ऐसी शिक्षा उपलब्ध करें जिससे कि वह देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी बचपन से ही समझे, बचपन से ही अगर बच्चों को ऐसे संस्कार मिलें जिससे कि उन्हे अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो और उन्हे अच्छे बुरे की पहचान हो तो हमे स्वस्थ और सशक्त देश निर्माण करने से दुनिया की कोई ताकत नही रोक सकती। तो बात फिर वहीं आती है कि ये संस्कार हैं क्या…कैसे प्राप्त होते हैं, कैसे अपनाए जाते हैं…कैसे व्यवहार में लाए जाते हैं..

संस्कार शब्द का मूल अर्थ है, ‘शुद्धीकरण’। अर्थात सामान्य अर्थ है–संस्कृत करना या शुद्ध करना, उपयुक्त बनाना या सम्यक् करना आदि। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है।

मूलतः संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से था जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे, किन्तु हिंदू संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना भी था। प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे। इस साधारण मनुष्य जीवत को विशेष प्रकार की धार्मिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं द्वारा उत्तम बनाया जा सकता है, जिससे कि वह जीवन में परम उत्कर्ष को प्राप्त कर सके। ये विशिष्ट धार्मिक प्रक्रियाएँ ही ‘संस्कार’ हैं।

अतः गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को ‘संस्कार’ कहा जाता है।

मनुष्य के जीवन के तीन मुख्य आधार माने गए हैं–

(1) उसकी चेतना शक्ति, जिससे जीवन मिलता है। शरीर में स्थित इसे ही ‘आत्मा’ कहा जाता है। यह आत्मा विश्वव्यापी परम चेतना शक्ति ‘परमात्मा’ का ही एक अंश है, जो आत्मा से भिन्न न होने हुए भी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि के कारण भिन्न प्रतीत होने लगता है। इसी कारण इसे ‘जीवात्मा’ या ‘जीव’ कहा जाता है। यही चेतना-शक्ति वनस्पति से लेकर मनुष्य तक सभी के जीवन का आधार है। मनुष्य में इस चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है, इसीलिए यह प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।

मनुष्य का दूसरा बड़ा आधार उसका ‘मन’ है। ‘मन’ इसी चेतना-शक्ति की एक विशेष रचना है, जो चेतना-शक्ति से सक्रिय होकर मनुष्य के सभी कर्मों का कारण बनता है। अतः मनुष्यकृत कर्मों का कारण चेतना-शक्ति (आत्मा) नहीं, अपितु ‘मन’ ही है। मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे सभी कर्म ‘मन’ से ही करता है।

बार-बार कर्म करने से वे ही कर्म उसकी आदतें बन जाती हैं। ये आदतें (स्वभाव) ही बीज रूप में उसके मन के गहरे स्तर पर जमा होती रहती हैं, जो मृत्यु के पश्चात् ‘मन’ के साथ ही सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया जन्म, नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में भी पिछले जन्मों के अनुसार उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इसे ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।

ये ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं। 

इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियाँ भी इन पर प्रभाव डालती हैं तथा चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं।

‘संस्कार’ शब्द के साथ विलक्षण अर्थों का योग हो गया है जिनका उद्देश्य मात्र औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कारित व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता भी है। इससे यह समझा जाता है कि सविधि-संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कारित व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है–आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। (वीरमित्रोदय, संस्कारभाष्य, पृष्ठ 132)

संस्कृति की भूमि पर ‘संस्कार’ आधारित है। ‘संस्कार’ ही हिंदू धर्म या संस्कृति के जन्म और उत्कर्ष का कारण एवं साधन हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक हिंदू के लिए संस्कृति की आधारृ-भूमि और व्यक्ति तथा समाज का विकास करनेवाले संस्कारों की विधिवत् जानकारी होना आवश्यक है।


जिस प्रकार खान से सोना हीरा आदि निकलने पर उसमें चमक, प्रकाश तथा सौंदर्य के लिए उसे तपाशकर, तराशकर उसका मैल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत अर्थात् संस्कारवान् बनाने के लिए उसका पूर्णतः विधिवत् संस्कार-संपन्न करना आवश्यक है। विधिपूर्वक संस्कार-साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न करके आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही ‘संस्कार’ है और मानव जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है।

‘संस्कार’ मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं। संस्कारों से आत्मा की शुद्धि होती है, विचार व कर्म शुद्ध होते हैं। इसीलिए ‘संस्कारों’ की नितांत आवश्यकता है।

बच्चो को सिर्फ किताबी शब्दो की शिक्षा तक मर्यादित नही करना चाहिये,उन्हे ऐसे साधन उपलब्ध कराये जिससे उन्हें अपने वेद शास्त्रों में निहित बातों का भी ज्ञान हो। सभ्य, सुसंस्कृत, शिक्षित व आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा मिले और वह देश और अपने समाज के प्रति दायित्व को पूरा करने की प्रतिज्ञा करे।

बच्चो के मन मे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना हो ना की ईर्ष्या की उनमे आत्मज्ञान जाग्रत करो जिससे उनका आत्मविश्वास बढे उनके मन मे भेदभाव और अलगाव की भावना ना घर करे बल्कि बच्चो के दिल मे एकता और मिल बांटकर खाने की आदत हो ,आज हमे हमारे बचो को राष्ट्र हित हेतु ऐसी शिक्षा और संस्कार देने की अवश्यकता है जिससे वह राष्ट्र की तरक्की मे ही स्वयं का हित देखे।

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