होली का वास्तविक स्वरुप

होली का वास्तविक स्वरुप

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्तिक नव सस्येष्टि पर्व है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अन्नों से किया हुआ यज्ञ, और होली शब्द (होलक) का अपभ्रंश है।

यथा–
तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।(भाव प्रकाश)

अर्थात्―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमी-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।

होलिका―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट (पर्त) मटर का पट (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पट (पर्त)। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिरी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चना आदि का निर्माण करती है। (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद (गिरी) का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, और प्रह्लाद (गिरी) बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर की गिरी) को बचा लिया, जिसे यज्ञ प्रसाद के रूप में बाँट कर खाया जाता है।

अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (इष्टि) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्तिक नव सस्येष्टि पर्व है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु के। नव=नये। सस्य=फसल।(का) इष्टि=यज्ञ।

मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल के पकने का आरम्भ है। अब तक चना, मटर व जौ आदि अनेक नवान्न पकने लगते हैं। अत: परम्परानुसार नई फसल पितरों देवों को समर्पित न करें, यह कैसे सम्भव है। तो कहा गया है कि :–
अग्नि वै देवानाम मुखं अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह अग्नि द्वारा सूक्ष्म रूप में विघटित होकर पितरों देवों को तथा अन्तोगत्वा प्राणियों के ही उपयोग हेतु प्राप्त होगा।

हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(१) आषाढ़ मास (श्रावणी), (२) कार्तिक मास (दीपावली) (३) फाल्गुन मास (होली) यथा फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।

समीक्षा―हम प्रतिवर्ष होली जलाते हैं। उसमें आखत डालते है जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप है, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। हम जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। हमारी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही है। इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली (वासंतिक नव सस्येष्टि) रूपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।

ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते―अर्थात् ऋतुओं के मिलन समय पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली शिशिर और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारणार्थ यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है।

अब आप होली को प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न पर्व का है।

पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नामक राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नामक आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l यह कथा किसी के द्वारा मनगढ़ंत है, नितांत मिथ्या हैं।

होली उत्सव यज्ञ का पर्व है। स्वयं से पहले चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं। आईये इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस वैदिक सांस्कृतिक पर्व को मनाये। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञीय परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मूँग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।

आप सभी को वासन्तिक नव सस्येष्टि पर्व (होली) की हार्दिक शुभकामनाएँ —

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